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  • Friday, 10:24:11 PM, 08-Apr-2022
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कविता क्या होती है जानिए हिंदी में | poetry basic information in hindi?

what is poetry in hindi

कविता किसी न किसी कवि के जीवन के अनुभव के आधार पर लिखी जाती है | कविता कई सारे टॉपिक्स पर अलग-अलग तरीके से  कवियों द्वारा लिखी जाती है जिसमे कुछ न कुछ अर्थ छुपा होता है जिसका हमे पढ़ने से ही आभाष हो जाता है |

इन सभी कविताओं के माध्यम से कवि हमे ज़िंदगी जीने का सही तरीका बताना चाहता है। सभी कवियों ने अपनी जिंदगी के आधार पर  बहुत ही  बेहतरीन कविताएँ लिखी है |

यहाँ पर नीचे कुछ प्रसिद्द कवियों के नाम भी दिए हैं -
 जैसे - कुमार विश्वाश और राहत इंदौरी ऐसे और भी कई कवि हैं | 

कुछ कवितायें निम्न लिखित है -

एक दिन लिखूंगा

आतिश पर लिखूंगा, अंबर पर लिखूंगा

मर्दों पर लिखूंगा, महिलाओं पर लिखूंगा

उस वीर की वीरांगना पर लिखूंगा, बिलखते बच्चों के आंसुओं पर लिखूंगा

कल्पना पर लिखूंगा, कलाम पर लिखूंगा

चांद पर लगे उस लहलहाते तिरंगे पर लिखूंगा

सचिन पर लिखूंगा, मिताली पर लिखूंगा

अटल पर लिखूंगा, शास्त्री पर लिखूंगा

 

भूखे किसानों पर लिखूंगा, उनके योगदानों पर लिखूंगा

मैं बम्बई में हुए धमाकों की चीखों पर लिखूंगा, मैं संसद की हिलती दीवारों पर लिखूंगा

मैं कारगिल की गाथा लिखूंगा, मैं पोखरण पर अभिमान लिखूंगा

 

मैं शून्य और दशमलव पर गौरव गाथा सौ हज़ार लिखूंगा

मैं कसाब का कहर लिखूंगा, मैं अभिनंदन का शौर्य लिखूंगा

मैं होली के रंग हज़ार लिखूंगा, मैं ईद का इफ्तार लिखूंगा

मैं गंगा का गान लिखूंगा, मैं मगरीब की अज़ान लिखूंगा

मैं ईश्वर अल्लाह एक लिखूंगा, मैं गंगा जमुनी तहज़ीब लिखूंगा

मैं राम का राज्य लिखूंगा, मैं सीता का त्याग लिखूंगा

 

मैं विश्व की पहली सभ्यता लिखूंगा, मैं अडिग अमर भारत की कला लिखूंगा

मैं नदियों की ममता पर लिखूंगा, मैं पत्थरों में आस्था पर लिखूंगा

मैं कश्मीर की वादियों पर लिखूंगा, मैं कच्छ के रण पर लिखूंगा

 

मैं अयोध्या में हुए नरसंहार पर लिखूंगा, मैं कश्मीरी पंडितों पर हुए अत्याचार पर लिखूंगा

मैं भारत के प्रीत पर लिखूंगा, मैं भारत के रीत पर लिखूंगा, मैं भारत के संगीत पर लिखूंगा

मैं हज़ारों सालों के अपने इतिहास पर लिखूंगा, मैं माँ भारती के हर वीर की सांस पर लिखूंगा

मैं जय जवान लिखूंगा, जय किसान लिखूंगा,

मैं जय अनुसंधान लिखूंगा, मैं जय विज्ञान लिखूंगा

मैं भारत गौरवशाली लिखूंगा, मैं भारत सर्वशक्तिमान लिखूंगा।

 

 

बालापन की प्रीति भुलाकर
वे तो हुए महल के वासी,
जपते उनका नाम यहाँ हम
यौवन में बनकर संन्यासी
सावन बिना मल्हार बीतता, फागुन बिना फाग कट जाता,
जो भी रितु आती है बृज में वह बस आँसू ही लाती है।
मधुपुर के घनश्याम...

बिना दिये की दीवट जैसा
सूना लगे डगर का मेला,
सुलगे जैसे गीली लकड़ी
सुलगे प्राण साँझ की बेला,
धूप न भाए छाँह न भाए, हँसी-खुशी कुछ नहीं सुहाए,
अर्थी जैसे गुज़रे पथ से ऐसे आयु कटी जाती है।
मधुपुर के घनश्याम...

पछुआ बन लौटी पुरवाई,
टिहू-टिहू कर उठी टिटहरी,
पर न सिराई तनिक हमारे,
जीवन की जलती दोपहरी,
घर बैठूँ तो चैन न आए, बाहर जाऊँ भीड़ सताए,
इतना रोग बढ़ा है ऊधो ! कोई दवा न लग पाती है।
मधुपुर के घनश्याम...

लुट जाए बारात कि जैसे...
लुटी-लुटी है हर अभिलाषा,
थका-थका तन, बुझा-बुझा मन,
मरुथल बीच पथिक ज्यों प्यासा,
दिन कटता दुर्गम पहाड़-सा जनम कैद-सी रात गुज़रती,
जीवन वहाँ रुका है आते जहाँ ख़ुशी हर शरमाती है।
मधुपुर के घनश्याम...

क़लम तोड़ते बचपन बीता,
पाती लिखते गई जवानी,
लेकिन पूरी हुई न अब तक,
दो आखर की प्रेम-कहानी,
और न बिसराओ-तरसाओ, जो भी हो उत्तर भिजवाओ,
स्याही की हर बूँद कि अब शोणित की बूँद बनी जाती है।
मधुपुर के घनश्याम

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तुझको या तेरे नदीश, गिरि, वन को नमन करूँ, मैं ?
मेरे प्यारे देश ! देह या मन को नमन करूँ मैं ?
किसको नमन करूँ मैं भारत ? किसको नमन करूँ मैं ?

भू के मानचित्र पर अंकित त्रिभुज, यही क्या तू है ?
नर के नभश्चरण की दृढ़ कल्पना नहीं क्या तू है ?
भेदों का ज्ञाता, निगूढ़ताओं का चिर ज्ञानी है
मेरे प्यारे देश ! नहीं तू पत्थर है, पानी है
जड़ताओं में छिपे किसी चेतन को नमन करूँ मैं ?

भारत नहीं स्थान का वाचक, गुण विशेष नर का है
एक देश का नहीं, शील यह भूमंडल भर का है
जहाँ कहीं एकता अखंडित, जहाँ प्रेम का स्वर है
देश-देश में वहाँ खड़ा भारत जीवित भास्कर है
निखिल विश्व को जन्मभूमि-वंदन को नमन करूँ मैं !

खंडित है यह मही शैल से, सरिता से सागर से
पर, जब भी दो हाथ निकल मिलते आ द्वीपांतर से
तब खाई को पाट शून्य में महामोद मचता है
दो द्वीपों के बीच सेतु यह भारत ही रचता है
मंगलमय यह महासेतु-बंधन को नमन करूँ मैं !

दो हृदय के तार जहाँ भी जो जन जोड़ रहे हैं
मित्र-भाव की ओर विश्व की गति को मोड़ रहे हैं
घोल रहे हैं जो जीवन-सरिता में प्रेम-रसायन
खोर रहे हैं देश-देश के बीच मुँदे वातायन
आत्मबंधु कहकर ऐसे जन-जन को नमन करूँ मैं !

उठे जहाँ भी घोष शांति का, भारत, स्वर तेरा है
धर्म-दीप हो जिसके भी कर में वह नर तेरा है
तेरा है वह वीर, सत्य पर जो अड़ने आता है
किसी न्याय के लिए प्राण अर्पित करने जाता है
मानवता के इस ललाट-वंदन को नमन करूँ मैं !

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जानता है तू कि मैं कितना पुराना हूँ?
मैं चुका हूँ देख मनु को जनमते-मरते ।
और लाखों बार तुझ-से पागलों को भी
चाँदनी में बैठ स्वप्नों पर सही करते।

आदमी का स्वप्न? है वह बुलबुला जल का
आज उठता और कल फिर फूट जाता है ।
किन्तु, फिर भी धन्य ठहरा आदमी ही तो
बुलबुलों से खेलता, कविता बनाता है ।

मैं न बोला किन्तु मेरी रागिनी बोली,
देख फिर से चाँद! मुझको जानता है तू?
स्वप्न मेरे बुलबुले हैं? है यही पानी,
आग को भी क्या नहीं पहचानता है तू?

मैं न वह जो स्वप्न पर केवल सही करते,
आग में उसको गला लोहा बनाता हूँ ।
और उस पर नींव रखता हूँ नये घर की,
इस तरह दीवार फौलादी उठाता हूँ ।

 

 

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